छत्तीसगढी सहज हास्य और प्रखर ब्यंग्य की भाषा है।
काव्य मंचों पर मेरा एक एक पेटेंट डॉयलाग होता है, ‘मेरे साथ एक सुखद ट्रेजेडी ये है कि दिल की बात मैं छत्तीसगढी मे बोलता हूँ, दिमाग की बात हिन्दी में बोलता हूँ और दिल न दिमाग की यानि झूठ बोलना होता है तो अंग्रेजी में बोलता हूँ।’ हो सकता है कुछ लोगों को इसमें आत्म विज्ञापन की बू आए। मगर ऐसा नहीं है, जिसे आप मेरे श्रेष्ठता बोध की विशेषता समझ रहे हैं, दरअसल वह हर भारतीय आम आदमी की की विवशता है। भारत का आदमी मातृ भाषा में हृदय खोलता है, माध्यम की भाषा में सोचता है और विदेशी भाषा में औपचारिकता निभाता है। मेरे इस लेख की भाषा हिन्दी है तो आगे आप खुद समझदार है, हिन्दी साहित्य जगत में ब्यंग्य ने स्वयं आगे बढकर अपना स्थान बनाया है। हिन्दी के समीक्षक यह सोचते ही रह गए कि ब्यंग्य विधा है या शैली, इसका शिल्प क्या है, इसकी पहचान क्या है, इसकी स्थापना का आधार क्या है और व्यंग्य को बिना किसी अवधारणा की परवाह किए स्वयं को विधा के रूप में स्थापित कर लिया। समीक्षकों ने जैसा अत्याचार हास्य के साथ किया वैसा ब्यंग्य के साथ नहीं कर पाए क्योंकि ब्यंग्न ने उनको मौका ही नहीं दिया। ब्यंग्य ने यह अवधारणा भी ध्वस्त कर डाली कि एक असफल लेखक ही सफल समीक्षक होती है। दरअसल आजादी के बाद जो विसंगतियां पैदा हुई है उसे अभिव्यक्त करने में कोई भी साहित्यिक विधा स्वयं को सक्षम नहीं पा रही थी, जिसने भी सच लिखा वह ब्यंग्य हो गया, इसलिए कहते हैं कि ब्यंग्य विसंगतियों से पैदा होता है और हास्य विदूपताओं से हास्य दिखाई पडता है और ब्यंग्य समझ में आता है। देखते ही देखते ब्यंग्य साहित्य की मुख्य धारा में परिणीत हो गया। हिन्दी साहित्य का यह परिवर्तन समस्त भारतीय भाषाओं में परिलक्षित होने लगा। छत्तीसगढी तो सहज रूप से हास्य और ब्यंग्य की भाषा है। जन जीवन की जिन्दादिली हमे निरंतर परिपुष्ट करती रही। आजादी के आस-पास ही छत्तीसगढी में ब्यंग्य अनेक शिल्पों में व्यक्त होता रहा है परन्तु आठवें दशक में ब्यंग्य के माध्यम से हमें पहचान मिली। समाचार पत्रों के द्वारा बकायदा व्यंग्य का प्रकाशन शुरू हुआ और नवभारत दैनिक ने लगातार दस वर्षों तक ब्यंग्य सतम्भ प्रकाशित कर एक इतिहास रचा। आज ब्यंग्य बहुतायत में लिखा जा रहा है और कई ब्यंग्यकार छत्तीसगढी साहित्य में स्थापित होने की मुद्रा में है। दुर्भाग्य से छत्तीसगढी साहित्य को ईमानदार समीक्षक नहीं मिले जिसके कारण सही एवं सक्षम ब्यंग्यकार उन लोगों से पिछडु गए जो कथित समीक्षकों द्वारा उछाले गए।
ऐसे समीक्षकों में किसी नये आगंतुक को पुरोधा घोषित करने की प्रतियोगिता चल पडी है। पुस्तकों में जो भूमिका लेखन की परम्परा चली आ रही है वह आज साहित्यिक, राजनीति करने की अनिवार्य विधा बन चुकी है, सारी उठा पटक बडी-बडी डिग्रीयां लटकाए समीक्षक जो कि छोटे-छोटे लेखक ही होते है इसी कार्य के बल पर चर्चित माने जाते हैं। छत्तीसगढी लोक भाषा जो कि अभी परिनिष्ठित भी नहीं हुई है ऐसी ही साहित्यिक राजनीति का शिकार हो चुकी है कुछ लोग तो अपनी क्षेत्रीयता को थोपने के लिए तरह-तरह के कायदे कानून बनाने लग पडे हैं। सन् 1952 मे विनोबा भावे जी की अपील मानकर भारतीय लोक भाषाओं में देवनागरी लिपि अपना ली और उसी में लेखन प्रारम्भ कर दिया, इसके बावजूद कुछ विद्वान छत्तीसढी में संयुकताक्षर नहीं होता, केवल स होता है श और ष नहीं होता आदि-आदि फतवे जारी करते रहते हैं। कुछ विद्वान (2) तो नामों (संज्ञा) का भी छत्तीसगढीकरण करने के पक्षधर हैं तो कुछ ऐसे भी हैं केवल उच्चारण शैली के कारण ब्यंग्य को ‘बियंग’ कहना पसंद करते हैं। ‘दृष्टि’ को दिरिसटी और ‘प्रदेश’ को परदेस, लिखकर छत्तीसगढी भाषा को अठारवीं सदी में ले जाने का ‘यश’ मोल ले रहे हैं। ऐसे प्रयासों से छत्तीसगढी, ब्यंग्य की प्रखर भाषा होते हुए भी हास्यास्पद होती जा रही है। लोग पुरोधा बनने के चक्कर में इन तमाम हरकतों को प्रोत्साहित कर रहे हैं। बिना सेंस ऑफ ह्यूमर के ब्यंग्य महज गाली – गलौज है। धर्मेन्द्र निर्मल छत्तीसगढी के युवा उत्साही ब्यंग्यकार है। एक सराहनीय बात यह है कि धर्मेन्द्र निर्मल के ब्यंग्यों में छत्तीसगढी के परिनिष्ठित स्वरूप की संभावना झलकती है, यद्यपि इनके अधिकांष लेख ब्यंग्य के बजाय ‘बतरस’ के ज्यादा करीब है, शिल्प की विविधता नहीं है और प्रहार को फोकस नहीं किया गया है, तथापि विशेषता यह है कि ये रोचक है, पठनीय है, विषयों की विविधता है और राजनीतिक प्रदूषण से मुक्त है। राजनीति को ब्यंग्य का विषय नहीं बनाना शास्वत लेखन की अनिवार्य शर्त है, वैसे भी ब्यंग्य प्रवृत्तियों पर प्रहार करता है, व्यक्तियों पर नहीं। मैं उम्मीद करता हूँ धर्मेन्द्र निर्मल अभी और निखरेंगे, बेहतर लिखेंगे एवं श्रेष्ठता की हर ऊंचाई को छूने में सफल होंगे। आमीन।
रामेश्वर वैष्णव
( गीत, गजल, ब्यंग्य )